मित्र !
अभिजात्य
रेशमी-शॉल ओढ़
कांधों पर
नागरीय-शकुनी का शव धरे
दु:शासनी मकढ़ी के जालों
दुर्योधनी द्वेष की गर्द में
आंकठ डूबे
अपने भीतर-बाहर के सेभी द्वार बंद कर
हरियल खेतों की मेड़ों पर
गेहूँ की बालियों
सरसों के पीले फूलों
महकाते धनिया
बौराई अमराइयों की
बासंती-गंध को
श्वासों में कैसे भर पाओगे ?
मित्र !
अपने को ''मैं'' से मुक्त करो
कोकिला के स्वर में स्वर मिलाओ
भंवरों के गुन्जन के संग-संग
मन को उन्मुक्त हो उड़ने दो
फिर बसंत को
अपने भीतर
खिलखिलाता पाओगे।
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