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Monday, October 29, 2012

इन्‍हीं के घर रहन मेरी उम्र की शाम है



इन्‍हीं के घर रहन मेरी उम्र की शाम है
मेरी सिसकती शेष खुशियों के ग्राम है,
कुर्सियों से चिपके लोगों के नाम हैं।
बैसाखियों पर चढ़ जो हो गए हैं हुजूर,
सभी को मुझ बौने का बा-अदब सलाम है।
रोशनी के नाम पर अंधेरे बांट रहे,
इनकी जेबों में बन्‍द सुबह की घाम है।
कल तक के हम-सफर आज हो गए खजूर,
इनके कटे-साये में जिन्‍दगी तमाम है।
कागज-सा दिन छेद दिया आलपिनों से,
इन्‍हीं के घर रहन मेरी उम्र की शाम है।

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