भीड़ में
खुल सकते
नहीं
किवाड़
मन के।
सिर्फ रह
जाते हैं कुछ
मौन के
पर्दे हिलकर
तारकोली-अधरों
पर
पैबन्द
हंसी के खिलकर।
लयहीन
कलों के
शोर में
बोलते
हैं सिर्फ, कोण नयन के।
आलपिनों
की नोक पर
झुका
मिमियाता संवाद
रोज एक
ही अर्थ का
बासी शब्दानुवाद।
टूट कर
सूरज से
कर लेते
हैं बन्द
मकानों
में शव तन के।
ओढ़ कर
तिमिर
श्वासें
किरचों से
दु:ख
अपने सी रहीं।
ढंक सकते
नहीं
उधार के
सृजन से
शरीर
निर्वसन के ।
------