वसुधा-तल
मेंहंदिया गया
ज्यों
मेहंदी तुम्हारे हाथ की ।
दमकें
दामिनी जैसे तुम्हारे
श्यामल
कुन्तल में
गुंथी स्वर्ण-डोर,
तोड़ अधरों
के अनुबन्ध
बिखर गई
रिमझिम-सी
तुम्हारी
हंसी चहुं ओर।
दूर्वा
सी उग आई सुधियां
प्रथम-प्रणय
सौगात की।
पुरवा की
ताल पर
नाचे फुहारें,
नाचती ज्यों
तुम झूम-झूम
घूमर,
टूट-टूट
नभ से
छुमकती
आंगन में बूंदें
ज्यों
पांवों के नूपुर।
ऐसे में
मदिरा भी क्या,
मादक है ऋतु
बरसात की।
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