फिर गुल खिला रहे
चुनाव, मरु के गांव।
रेत में जैसे धंसे
नाव, मरु कि बोव।।अक्षरों की भाषा से बेखबर आदमी,
जी रहे भूख और अभाव, मरु के गांव।
इस ढाणी से उस ढाणी तक, यहां-वहां,
धूप ही धूप है न छांव, मरु के गांव।
रेत ही रेत पसरी हुई आँखों में,
प्यासे कुएं-खेत कर रहे सायं-सायं,
अब ताक हर तरु भटकाव, मरु के गांव।
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bahut shandar, maru ka dard likha hai aapne
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