आदमी इक खबर है
सिर्फ पत्र का फटा हुआ कोना।
जिन्दगी यह है कि
सिर्फ ढाक के तीन पात का दौना।।
धूप छांव से खेला
करता हर पल क्षण आँख मिचौली,
जिजीविषाओं की डेर
बंधा है यह सिर्फ एक खिलौना।
नेह नहीं आँख से
कामवासनाएं पाप प्रसवती,
रक्त रंजित सदी का
आदमी हो गया कितना बौना।
पीठ पे कर्ज लदा जिसके
कि मुँह में पगार की लगाम,
कतरा-कतरा खूं का
बहता वन पसीना मगर अलौना।
जंगल में बहैलिया जब
डाले हो घेरा ''यादवेन्द्र''
बचेगा कैसे आखेट में डरा-डरा सा मृग छौना।
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