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Sunday, August 19, 2012

तान दिया पाल, बसासंती-चुनरिया का



तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का।


खोल दिए वेणी-बन्‍ध
रस-क्‍यारियां भर दी गन्‍ध
मुकुलित गुच्‍छों से झूल गए
मधुवासित-फूलों के छन्‍द।

महका कौना-कौना, गांव-नगरिया का ।
तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का ।।


दिग्-दिगन्‍त अमलतासी धूप
नई सरसों का मुखरित रूप
उगा है मन-दर्पण के बीच
सखि, कचंनवर्णी रूप अनूप ।

सरसा रोम-रोम से, स्‍वर बांसुरिया का ।
तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का ।।


थाप पड़ी है फागुनी-चंग
कंठों में गीतों की उमंग
रस-भीगी उर्वश चूनर देह
हो गए एक बासंती-रंग।


पनघट ठलका रस, रसवंती गगरिया का,
आंचल-आंचल भीगा हर गुजरिया का,
तान दिया पाल, बासंती-चुनरिया का ।
तान दिया पाल, बासंती चुनरिया का ।।
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