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Thursday, December 27, 2012

ये इन्द्रियां




सुबह हो/ या शाम
सनसनाता झुलसाता दिन हो/ या ठंडी रात
अकेला हो मन/ या कोई हो साथ
हर पल/ हर क्षण
कान खड़े किए/ श्‍वान सी घाणेन्द्रियां
कुलबलाती/ दसों इंद्रियां
बतियाती रहती है/ आपस में
बात-बेबात
जब भी होता है/ अनायास कोई खड़का
झन-झनाहट करता/ गिरता है कोई बर्तन रसोई में
खदबदाता है कुछ/ बटलोई में
लगता है/ तड़का 
या फिर गली में/ भौंकता है कुत्‍ता
उचकाकर/ गदरदनें
अधखुली खिड़कियों से
झांकती है/ आंकती हैं
धूप अंधेरे में/ मिचमिचाती आंखों से
बांचती है/ अपने भीतर का डर
फुसफुसाकर/ दुबक जाती है
जैसे कि तूफान के भय से
रेत में छुपा लेता है/ गर्दन शुतुरमुर्ग
बजाय तन कर/ खुद अस्‍त्र बन
सामना करने तूफान का।

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Tuesday, December 25, 2012

मोह घर का




खजूर की लम्‍बी/म्‍यालें
लाचार है अब/बोझा ढोने में
छप्‍पर का।
दरख्‍त थे जो भी/छायादार
उखड़ गए-
पुश्‍तैनी जमीन से/लोगों के
पांव।
लरज़ते बोल/अलगोजे के
खो गए-
रूप-रस-गंध वाले
गांव।
शहतूती रिश्‍तों को
लील गया/जादू
शहर का।
पसीने में भीगी/छोटी-छोटी
खुशियों पर
मौसम ओले/बरसाए।
कुंआरी
मेहंदी वाली हथेली के
चटक रंग/धुधलाए।
ढह गया/भरभरा कर
मिट्टी की सौंधी गंध वाला/
मोह घर का।
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Saturday, December 22, 2012

मरू का ढाणी-गांव




धू-धू जले 
धरती धोरां री
ज्‍यूं आव
जीवड़ों कलपे
पाणी-पाणी
मेघ-बाबा जल्‍दी आव।
श्रीहीन खेजडि़यां
ठूंठ खड़े रूंख
मनख डोर-डांगर
तरस्यां मर गया भूख।
नेतारी/बांच्‍छयां खिल गई
रेत पे तैरावे
कागद री नाव।
सूना पड्या झूंपा
सायं-सायं बोले बायर्ड़यो (हवा)
ठहाका मारे चारूं खूंट
अकाल माथे खड़यो।
जहां-तहां पड्या/मृत जिनावर (जानवर)
मरघट सो लागे
मरू ढाणी गांव।
आसवासना (आश्‍वासन) री अफीम
खातां बी गई सदी
गूजर रा फूल हुई
रेल मे जल री नदियां।
पेहरूआं रा घर/बिना दूब रा गलिचा
करज चकाती जणता (जनता)
चाले आप पे नाग्‍या (नंगा) पांव।
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Thursday, December 20, 2012

गाना है मंगल नव-विहाग




अब तो
नीम-नींद से जाग
श्रम-शिव!
जाग जाग रे जाग।

गहन अंधकार की कलाई
तू नहीं तो कौन तोड़ेगा?
छल-कपट द्वेष-ईर्ष्‍या – घट
तू नहीं तो कौन फोड़ेगा?

छोड़ अब
श्‍मशानी-वैराग्‍य
चिलम की
चेता रे तू आग।

तेरी कामधेनू-फसलों का
नीर-क्षीर पी रहे सपोले
नहीं समय यहां किसी को
देख तो जन के फफोले।

यों न व्‍यर्थ
कोसता रह भाग
छू ले
नभ लगा के छलांग।

आक्रांत संगीत-शेर में
गुम हुए अलगोजे के स्‍वर
तेरे सपनों के गांव-छांव
चंदन-बन आ बसे विषधर।

तुमको ही
कील कर ये नाग
गाना है
मंगल नव-विहाग।
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Tuesday, December 18, 2012

अधरों पर धरो बांसुरी सुरीली



हर तरफ
पसरा रेत का समन्‍दर है
उड़ रहे
चहूं ओर गर्म बवण्‍डर है
दूर तक
नहीं वृक्ष अभिशप्‍त छांव है
आग पर
चलने को यों विवश पांव हैं
रेत में
हो गई गुम नेह की नदियां
बींध कर
देह को चलते अग्निश्‍र हैं
सुमन मन
थे जो आज बबूल हो गए
स्‍वर्ण-मृग
अब ‘’राम’’ को कबूल हो गए
सत्‍य–मति
रास आती न ‘विदुर’ को भी
कंठ तक
आते न स्‍वर, मौन अधर हैं
भू-धरा का भी हो रहा कंपित गात
दीन की
आंख से हो रहा अश्रु-पात
मिलने से
पहले ही बिछुड़ गया डार से
फूल के
घर रास रचाता पतझर है
यही तो
’धर्मचक्र’ नहीं और न जीवन
ज्ञान-धन
वह जो करता शांत मन
निज रूप
निखरो ‘जन-गण-मन’ कितना विकल
प्‍यास से
दूर अभी मानसरोवर है
हर अधर
पर धरो बांसुरी सुरीली
गीत में
उतरने को आतुर हंस-स्‍वर है।
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